Tuesday, December 17, 2013

PS Malik: Politics and Policies: AAP की सरकार – यह प्रश्न है, दुविधा है या मैलोड्रा...

AAP की सरकार – यह प्रश्न है, दुविधा है या मैलोड्रामा


AAP की सरकार – यह प्रश्न है, दुविधा है या मैलोड्रामा है

आप ने कहा है कि वह काँग्रेस के समर्थन से सरकार बनाये या नहीं इस बात का फैसला करने के लिये वे लोग जनता के बीच जाएँगे। एक कागज़ दिखाया जा रहा है जिसकी 25 लाख प्रतियाँ बँटवाई जाएँगीं और जनता से कहा जाएगा कि वे सरकार बनाने या ना बनाने को लेकर अपना मत दें।
इस आम चुनाव में काँग्रेस हार गई थी। उसे मात्र 8 सीटें मिलीं। लेकिन काँग्रेस ने साबित कर दिया है कि वह भारतीय लोकतंत्र की सबसे अनुभवी पार्टी है। उसने हारकर भी यह चुनाव जीत लिया है। उसने अपने चिर प्रतिद्वन्द्वी भाजपा को दिल्ली की गद्दी से दूर रखने में निस्संदेह सफलता हासिल कर ली है। और जिस व्यक्तिमूलक पार्टी ने उसे हराया था उसी व्यक्तिमूलक पार्टी को उसने अपनी बैसाखियाँ लेने को मजबूर कर दिया है। यह वस्तुतः वह सूत्र है जो समझाता है कि इतने विरोध और गंभीर आरोपों के बावजूद भी क्यों काँग्रेस की ग्राह्यता सब दलों से अधिक है।
भाजपा तो गद्दी छोड़कर एक तरफ़ खड़ी हो गई है परन्तु नवजात AAP के लोग कन्फ्यूज़ हो गए हैं। समर्थन की बात कहकर काँग्रेस ने उन्हें नागपाश से बाँध दिया है। ग़ालिब ने कहीं लिखा है
                        हुए हैं पाँव ही ज़ख्मी नबर्द ए ईश्क में ग़ालिब
                   ना भागा जाए है मुझसे ना ठहरा जाए है मुझसे

आज केजरीवाल से बेहतर इस शेर का मतलब और दूसरा कौन जानता होगा। AAP के भिन्न भिन्न क्षत्रप भिन्न भिन्न बातें बोल रहे हैं। कोई सभी विकल्पों की बात कर रहा है कोई काँग्रेसी इतिहास की बात कर रहा है और चँद्रशेखर सरकार के पतन की ओर इशारे कर रहा है। कुछ सूझ नहीं पा रहा लगता है। राजनीतिक सँवाद की भाषा निम्न से निम्नतर होती जा रही है और काँग्रेस एक हिमयति की तरह शाँत भाव से सुन रही है।
दिल्ली की जनता बौरा रही है। पहली बार उसे महसूस हो रहा है कि गम्भीर राजनीति और एक हास्य कवि सम्मेलन के बीच के एक मौलिक अँतर होता है और इसे सदैव बनाए रखा जाना चाहिये। कल उसके पास मतपत्र आए थे चुनाव के लिए और सुना है आज-कल में वो 25 लाख कागज आने वाले हैं जिन पर उनसे फिर पूछा गया है कि AAP क्या करे।
वैसे जनता को इतनी बावली क्यों समझा जा रहै है कि उसे यह भी याद नहीं कि AAP को विधान सभा में क्यों भेजा गया था। विगत् इतिहास में जनता को कभी इतना भुलक्कड़ नहीं समझा गया। और अगर किसी ने ऐसा करने की हिमाकत की तो उसे उसका खमियाजा भी भुगतना पड़ा – चाहे वह 1977 की काँग्रेस हो या 1979 की जनता पार्टी। 2013 की शीला सरकार का परिणाम भी यही दिखाता है।
थोड़ा सा पर्दा उठा कर देखें तो AAP का डरा हुआ चेहरा उजागर हो जाता है। अगर उनमें राजनीतिक शुचिता और मूल्यों की प्रतिबद्धता होती तो वे अपना स्टैण्ड ना बदलते और जैसा कि वे दूसरों को कहते हैं – सत्ता की भूख में सिद्धाँतों से समझौता ना करते। वे अपनी शुचिता पर अड़े रहते और पुनः चुनाव में जाकर पूर्ण बहुमत के साथ आते। पर उन्होंने शायद इतना सब्र और साहस नहीं दिखाया। उन्होंने नये परन्तु अवमूल्यीकृत सँवादों के द्वारा सत्ता के लिए अपनी चेष्टाओं पर रँग लीपना शुरू किया। वे भी वैसे ही रँगे प्राणी हो गये जैसों के विरुद्ध उन्होंने शँख बजाया था। ये क्या हो गया। और ये क्या होने जा रहा है। ये नए यौद्धा लोग गद्दी चाह भी रहे हैं और डर भी रहे हैं।
FOR COMPLETE ARTICLE PLEASE VISIT THE LINK

No comments:

Post a Comment